यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् |
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् || 12||
यत्-जो; आदित्य-गतम्-सूर्य में; तेजः-दीप्ति; जगत्-ब्रह्मांड; भासयते-आलोकित होता है; अखिलम्-सम्पूर्ण; यत्-जो; चन्द्रमसि-चन्द्रमा में; यत्-जो; च-भी; अग्नौ-अग्नि में; तत्-वह; तेजः-तेज; विद्धि-जानो; मामकम्-मुझसे।।
BG 15.12: यह जान लो कि मैं सूर्य के तेज के समान हूँ जो पूरे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है। सूर्य का तेज और अग्नि की दीप्ति मुझसे ही उत्पन्न होती है।
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मानवीय स्वभाव ऐसा है कि हमें जो महत्वपूर्ण प्रतीत होता है उसके प्रति हम आकर्षित होते हैं। शरीर, पति पत्नी, बच्चों और संपत्ति को महत्वपूर्ण मानते हुए हम उनके प्रति आकृष्ट होते हैं। श्रीकृष्ण बताते हैं कि सृष्टि में व्याप्त जो कुछ भी महत्वपूर्ण दिखाई देता है वह सब उनकी शक्ति है। वे कहते हैं कि सूर्य की दीप्ति उनके अधीन है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सूर्य प्रतिक्षण करोड़ों परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के समान ऊर्जा उत्सर्जन करता है। वह अरबों वर्षों से ऐसा कर रहा है फिर भी उसकी ऊर्जा न तो कम हुई है और न ही उसकी ऊर्जा उत्सर्जन प्रक्रिया में कोई दोष आया है। यह सोचना कि एक अद्भुत आकाशीय शरीर के रूप में सूर्य सम्भवतः सहसा महा विस्फोट के कारण में अस्तित्व में आया होगा, ऐसा मानना अनुभवहीनता है। सूर्य जो भी है वह भगवान की विभूति है।
समान रूप से चन्द्रमा रात्रि में आकाश को प्रकाशित करने का अद्भुत कार्य करता है। यद्यपि लौकिक बुद्धि द्वारा हम वैज्ञानिक दृष्टि से यह निष्कर्ष तो निकाल सकते हैं कि चन्द्रमा का अस्तित्व केवल सूरज के प्रकाश के प्रतिबिम्ब के कारण है लेकिन यह अद्भुत व्यवस्था भगवान की विभूति से संपन्न होती है और चन्द्रमा भगवान की विभूतियों की कई अभिव्यक्यिों में से एक है। इस संदर्भ में केनोपनिषद में एक कथा वर्णित है। इसमें देवताओं और दैत्यों के बीच दीर्घकाल तक हुए युद्ध का वर्णन किया गया है जिसमें अंत में देवताओं ने विजय प्राप्त की थी। अपनी विजय से देवताओं में अभिमान आ गया और वे सोचने लगे कि उन्होंने अपनी शक्ति से असुरों पर विजय प्राप्त की थी। उनके अभिमान को नष्ट करने के लिए भगवान स्वर्ग के आकाश में यक्ष के रूप में प्रकट हुए। उनके रूप का तेज अत्यंत दीप्तिमान था। स्वर्ग के राजा इन्द्र ने सबसे पहले उन्हें देखा और वह यह जानकर आश्चर्यचकित हो गया कि मात्र एक यक्ष का तेज उससे अधिक दीप्तिमान है। उसने अग्नि के देवता को उस यक्ष के बारे में पता लगाने के लिए भेजा। अग्नि ने यक्ष के पास आकर कहा-“मैं अग्निदेव हूँ और मुझमें समस्त ब्रह्माण्ड को क्षणभर में जलाकर भस्म कर देने की शक्ति है। कृपया आप बतायें कि आप कौन है?" यक्ष के रूप में भगवान ने उसके सामने घास का तिनका रखा और कहा-"कृपया इसे जलाएँ" उसे देखकर अग्निदेव हँसने लगा, "क्या यह एक छोटा-सा तिनका मेरी शक्ति का परीक्षण करेगा?" और फिर जैसे ही उस तिनके को जलाने के लिए उसने अपने कदम आगे बढ़ाए तब भगवान ने उसके भीतर अपनी शक्ति के स्रोत को समाप्त कर दिया। बेचारा अग्निदेव सर्दी से कांपने लगा तब उस तिनके को जलाने का प्रश्न ही कहाँ रहा? अपने काम की विफलता से लज्जित होकर वह इन्द्र के पास लौट आया।
तब इन्द्र ने वायु के देवता को यक्ष की वास्तविकता ज्ञात करने के लिए भेजा। वायु देवता ने वहाँ जाकर घोषणा की-"मैं वायु का देवता हूँ और क्षण भर में संपूर्ण संसार को उलट-पलट कर सकता हूँ। अब कृपया अवगत कराएँ कि आप कौन हों?" "यक्ष बने भगवान ने उसके सामने घास का तिनका रखा और आग्रह किया-"कृपया इसे पलट कर दिखाएँ।" वायुदेव तीव्र गति से आगे बढ़ा और उसी दौरान भगवान ने उसकी शक्ति के स्रोत को बंद कर दिया। बेचारे वायुदेव को एक कदम भी आगे बढ़ना कठिन लगने लगा तब तिनके जैसी किसी वस्तु को पलटना कैसे संभव होता? अंत में जब इन्द्र वहाँ आया तब भगवान अर्तध्यान हो गये और उनके स्थान पर वहाँ भगवान की योगमाया शक्ति उमा प्रकट हुई। जब इन्द्र ने उमा से उस यक्ष के संबंध में पूछा तब उसने उत्तर दिया कि वे आपके परम पिता भगवान थे जिनसे सब स्वर्ग के देवता अपनी शक्तियाँ प्राप्त करते हैं वो तुम्हारा घमंड नष्ट करने आये थे।